Thursday, July 3, 2014

मुखौटे

मुझे ऊँचे तक पहुँचना था ।
सैंकङो सीढियाँ चढी
हजारों मुखौटे बदले मैनें

शीर्ष पर पहुँचने तक मेरा असली चेहरा लुप्त हो चुका था
और हजारों मुखौटे मिल कर उत्सव मना रहे थे
मेरे शीर्षासीन होने का !!

रोशनी

रात घनी और काली है
सूरज निगलने वाली है
तुम दिये से देहरी रोशन रखना

यहाँ सन्नाटो का बोझ पङा है
मुर्द सा होकर तन अकङा है
तुम जीवन सी लचक बनाये रखना

गर्दिशो के साये
सभी ओर छाये
उम्मीदों की नैया
भंवर में डगमगाये
तुम आशाओ की पतवार ले आगे बढना

Sunday, May 25, 2014

आशय

उलट चुकी इस सृष्टि में
आकाश जहां पृथ्वी हुआ है
और पृथ्वी ने आकाश को
विस्थापित किया है
वृक्ष पत्तों से बढने लगें हैं
जङों पर फल-फूल उगने लगें है
उथले-पुथले से ब्रम्हाण्ड में
हम वहीं टिके हैं
अपने होने का आशय खोजते ।

Thursday, May 22, 2014

कुछ कतरनें(ट्वीटर से )

1)
कुछ बिसरी बातों से भरा
खालीपन मेरा...

2)
बस और आंसू मत बहाना
"कविता"
कागज हद से  भीग गया है
पिघल जायेगा
और तुम फिर रह जाओगी
अनकही
अनसुनी

3)
कुछ नहीं बोलूगीं
ना ही कुछ तौलूगी
बस तुम्हे निहारूंगी चुप सी
मैं नीन्द  बन जाऊगीं तुम्हारी
अब तो
आंखो में आने दो

4)
लाख इल्जाम बांटते फिरते हो
हर किसी को भी
कभी आईने में दिखा शख्स गुनेहगार नजर आया है?

5)
जरा सा बचपना संभाल के रखना
फिर खेलने के काम आयेगा
मिट्टी में
जब राख हो उससे मिलने जायेंगे हम

6)
चलो बैठ जायें यूं ही
सब दुनिया बिसराकर कहीं
बिजली के तार पर बैठा
निश्चिन्त सा पंछी जैसे

7)
तुम्हारी मुट्ठी में कैद धूल हूँ
जिसे तुम
बहा रहे हो हवा मेँ
शैनैः शैनैः

8)
जैसा हम चाहेंगें , बन जायेंगे वैसे ही
अपने अपने विश्वकर्मा हैं सब

9)
ये काया तेरी मेरी
जोगन कोई
बदलेगी अपना ठिकाना

10)
नंगे पैर गर्म रेत पर चलो कभी
झुलसे कदम आगे ना बढ पायेंगें
और पगों के भीतर जाती आग रुकने भी न देगी

अब समझे हो क्या हमारी मनोदशा तुम ?

11)
तुझे रुबरु  कराने मुझ से
शब्द बैचेन हुये हैं
उल्टी कलम से लिख रही हू
कागज खुद स्याही बन बैठे हैं

12)
साजिशे हैं
अंगीठी में सुलगती आग सी
मैं बरसाकर पानी की धारा
समन्दर कर दूंगी ये लाक्षागृह...

13)
रात यादों की माला पहन चली
मुझ तक आ टूटी
एक एक मोती बिखरा था
मैने फिर से पिरोया

14)
बस अब तुम आ ही जाओ
और मार डालो
ये आधी जिन्दगी अच्छी नहीं लगती अब ।

15)
सुख पानी है
बह जाता है पता नहीं चलता
दुख पत्थर है
उगता है
पर्बत बन जाता है

16)
कभी ठोस
कभी तरल
कभी वाष्प
हम में ही है सारी अवस्थाएं
सकल पदार्थ हम ही हैं

17)
कुचल आओ पहली कोंपल
जो फूटी थी प्रेम में
मेरा हृदय कुचलने से
प्रेम ना मरेगा ।

18)
आधे ही रहो
अधूरे से
अधखिले पुष्प से
अधूरे खत से
आधे चान्द से ।

पूर्णता तो अन्त है ।

19)
धूप में सुखाने को छोङे हैं
कुछ आंसू
तार पर डालकर
और बरसात कि
ख्वाहिश भी की है ।
अजब मौसम है
मन मेरे तेरा ।

20)
भीतर
अग्निबाण छूटटे हैं
दावानाल है
भीषण द्वन्द है
बाहर
मौन है
शीतलता है
मैं पृथ्वी सी
पृथ्वी मुझ सी

21)
सत्य तो भ्रम है
झूठ नेत्रहीन है
अर्धसत्य साम्राज्य विस्तार कर रहा है
घूर रहा है सच-झूठ को
परास्त किये
विजयी मुस्कान लिये
"घातक अर्धसत्य"

22)
मुझमें पङी दरारें
सकेंत हैँ
नमी की
हलचल की
जीवन की 
क्या हुआ गर दीवार हूं मैं

23)
उससे बात करने के लिए लफ्जों की जरुरत कहां
मेरी पहली धङकन से ही जो मेरा जीवन समझ गई थी

#Maa

24)
भटकती फिरती है रेत
दर-बदर...
प्रेम की तलाश
खत्म होती है
जब
बादल बरस कर
भिगो देता है
मन उसका
तृप्त कर देता है

25)
मैं धूप लपेटने की कोशिश करती
बदली हूं इक
सूरज गीला कर जाऊंगी
देख लेना

26)
जितना तुममें खोकर
लीन होकर
तुम्हारा रहस्य समझना चाहा
तुम उतना ही
मुक्त करते गये मुझे ।
ईश्वर हुये हो क्या मेरे ?

27)
खोखली नींव हो गई हूं तेरे बिना
खयालों की माटी धसेगी मुझमें
मैं कुछ नहीं बस रह जाऊगी
तेरी यादों के मलबे का ढेर बनकर

28)
इतने जटिल ना हुये होते तुम
जहां तहां उलझे पङे पतंग के मांझे से
तुम्हारा मन
मस्तिष्क
दोनों पढना मुश्किल है
उफ्फ
अनपढ हूं मैं

29)
उत्तर कुलबुला रहें हैं
प्रश्न मर चुके हैं
भटकते रहेंगे अब जवाब सब
सवाल बनकर

30)
खटपट का शोर है
पटक पटक कर खेल रहा है
खिलौने से कहीं कोई
रात गूंगी है
निर्जीव बोल रहे हैं

31)
"सत्य" कटे-फटे पैरों
बेतरतीब बालों सा
अन्धेरा है कोई
रोशनी स्वप्न है
और ये पक्तियां
"अवसाद" की हैं

32)
सूरज को अंगीठी में रखकर
आग लगा देना
बची हुई पीली भस्म
आसमान पर छिङक कर
तारे बना देना
मुझे तो ये रात
ये अन्धेरा
भाता है बहुत

33)
निगलता गया है मुझे
निष्प्राण किया है
दम घोटूं
तू / तेरा प्रेम
अजगर सा

34)
मौन का दुशाला ओढे
रात चली
सुलझी सी उलझने लेकर

35)
बन्द आंखे ये मेरी
तेरी यादों के खतों का लिफाफा ....

36)
जमीं पर पङें हैं तो पत्थर-कंकङ
और आसमान में बिखरे तो सितारे हो गये ...

37)
जब मिलो
मेरी आंखो का समन्दर समेट लेना
बुहार लेना मेरी यादों की जमीन
और तन्हाईयां अंजुलि में भर लेना

38)
मारे मारे से ना फिरो
शब्दों
कुछ देर पन्नों पर सुस्ता लो
चाहो तो ठहर जाना उम्र भर
नहीं तो आगे बढ जाना
नई कहानी बनाने को

39)
खट्टी-मीठी अम्बिया तोङ लाना
बचपन तुम फिर से लौट आना ....

40)
आंधियां झगङती है
झंझावातों से लङती हूँ
तेरी यादों की धूल रोज
समेटती हूँ
मिट्टी का टीला बन गया है
मन मेरा

Monday, May 12, 2014

काला -सफ़ेद

हमने सफेद पर्दे गिरा रखे हैं
 भीतर की काली खिङकियों पर
 हकीकत अपनी बता
शर्मिन्दा नहीं होना चाहते हम ।

तिलिस्म

अजब
तिलिस्म बिखरा पङा है
 मैं
 जिन्दगी
 समेटती हूँ
और हाथ छोटे होते जाते हैं
 मैं हैरान हूँ
 सिकुङ रही हूं
 हर पल
रिस रही है मौत मुझसे

विनाशक

पत्थर बोये थे
 अब
 दीवारें उगने लगी हैं यहां
और
 फैलती जा रही हैं जहरीली हवा होकर
 अब दम घुटता है
 सांसे डूबती हैं
अपने विनाशक
 हम ही हैं

कशमकश

भीतर को
दो खम्भे गङे हैं
 सही गलत के
कशमकश के तारों से बन्धे हैं
दोनों
 और
 छटपटा रहे है
 लहुलुहान हैं
 बीच में अटके पङे हैं
 उलझे हुए है
हम

Wednesday, May 7, 2014

बचपन

कन्चों में
माचिस की खाली डिब्बियों मे
पन्चर हुये टायर में
टूटी चूङियों में
गुड्डे गुङियों में
रखा छोङा है

चलो
पुराने काठ के बक्से से वो
बचपन निकाले ...

छोटे हो चुके स्वेटर
सन्तरे की गोलियां
लुका छिपी
पकङा पकङी
गांव की गर्मी वाली छुट्टियां


बनाये थे जो घरौन्दे
फिर रेत हुये थे जो
आ मिट्टी से उन्हे वापिस लिवा लें ...

फिर से बचपन निकालें ...

Sunday, April 27, 2014

अहिल्या

स्वर्ण मुद्राओं के बादल
बरसते है आजकल
और ज़मीन पर
बोते  हैं
घृणा , द्वेष ,कटुता .....
 स्वार्थ के वृक्षों से
अटी पड़ी है पृथ्वी
जंगल हुई जा रही है ....
हम क्रोध के फल खा रहे है
और मृत्यु को उगा  रहें है
समय से पूर्व ...
वाणी से चाकू छुरिया बोलते हैं
संवेदना मार कर
गाड़ दी है पाताल में...
और मानवता ...
किसी कोने में पत्थर हो  बैठी है मानवता
फिर से जी उठने को
अहिल्या कि तरह
राम के इंतज़ार में ...



Monday, April 7, 2014

बंटवारा

वो वक्त भी खुद से हारा था
उस दिन बंटवारा था ...

जलती आग का उठता हुआ धुंआ था
राम की खाला, रहीम की माँ का कत्ल हुआ था...

सरसों के खेतों में लाशों की फसल उगी थी
ईमान की गर्दन हैवान के आगे झुकी थी ...

बांट डाले घर-बार
गम-त्यौहार
बन्द कर डाले वो द्वार,
जिनपर  आने जाने की कहानियां लिखी हुई थी ...

तो फिर
सांसे लेना बँद क्यूं न किया मजहब बांटने वालों ने
हवा तो हिन्दु-मुसलमान ना हुई थी ।

Monday, March 31, 2014

ईमान

बीच सड़क
 पडा था वो '
जर्जर,
मृतप्राय,
राह चलतो कि ठोकरे खाता!
 मैने पूछा
 कौन हो भाई
 तो दबी सी आवाज आई
 "ईमान"
पहले बेचते थे लोग ,
अब मार देते हैं!!

आज का इंसान

लूट रहा आबरु,
 बेच रहा ईमान है !
पैसों की खातिर जो,
 लेता अपनों की भी जान है !
 स्वार्थ के सिहांसन पर
 बैठा है जो शख्स
,क्या वही आज का
 इंसान है!

अधूरा मिलन

मैं भूमि
तुम गगन से ...
 मेरी हस्ती पर छाये हो...
 दिखते हो दूर क्षितिज पर
 मिलते हुए ...
निकट ना कभी आये हो!

गठरी

            १

खाली पन्ने गवाह हैँ
 मेरी तन्हाई के ..
 हाथों में कलम तो है
 पर लिखने को कुछ नहीं रहा ...

            २
कौन बुरा है कौन भला
 क्या फर्क पङता है यहाँ मरने के बाद
सब" स्वर्गीय" ही कहलाते हैँ...


            ३
"निशा "
तुम सखी हो मेरी ..
 कोलाहलो से
 बचाने चली आती हो ...
रोज मुझे खुद से मिला जाती हो


            ४
आईना तुम खुद पर गुरुर ना करो
, दूसरों को उनके चेहरे हजार दिखाते हो ,
 पर हर दफे चेहरो के साथ
 तुम भी तो बदला जाते हो ।



          ५
मेरी पहली कमाई
 किस बैंक में जमा रखी थी ,
 आज दादी की पेटी में
" कन्चों की थैली" मिली तो याद आया ।


          ६
तन्हाई, खामोशी,
सन्नाटा, मौन ...
आज मिलकर
 शोर मचा रहें है ,
बहुत कयामत दिखा रहे हैँ


          ७
 दूरियाँ सब
जहाँ से मिटाने चली ।
 खुद से खुद को
 आज मिलाने चली ।


          ८
 चलो कुछ किस्से
 सुनाते हैं फिर से ....
छूटे वक्त को
पकङ लाते है फिर से ....


         ९
 ना सीता दे अग्नि परीक्षा
कोई चीर हरण ना होने पाये ।
सब दुर्योधन सारे रावण
 बस कथाओं में रह जाये ।


             १०
 गर खुश हो तुम
 तो मुझे ना पढना
 मेरी कहानी रोती है ।
 मैं अब भी उस देस में हूँ
 जहाँ इक बच्ची भूखी सोती है ...


          ११
इक घर कुछ यूँ बनाये ।
 दीवारे खङी ना करें
दरवाजों से सजाएं ।


         १२
 
वो निन्दिया
 बहुत ही प्यारी थी ....
.जो दादी नानी की
कहानियों के साथ आती थी !



          १३
 जिन्दगी भी पतंग सी है-
 खूबसूरत,
कभी लङखङाती
कभी शान्त तैरती,
 हवा से बातें करती
और हश्र ये कि कटना है !!!!



            १४
 ताउम्र नहीं भरे
 उस सङक पर पङे जख्म.....
कभी कोई
"नेता"
वहाँ से गुजरा न था !


        १५
 दादी कि सन्दूक
और
उसकी महक में छुपा वो
 खुशियों का खजाना ....
आखों में आती थी अलग ही चमक
पाकर उसमें से मुट्ठी भर मेवे और
 आना - दो आना.....


          १६

अब उन्होने फौजी को भी काट दिया...
आधा हिन्दु, आधा मुसलमान में बांट दिया ।


       १७
 तुमसे मिले सारे लम्हे कागज पर रख छोङे
 कौन कहता है वक्त को कोई थाम नहीं सकता


         १८
 अब भी होते हैं चीरहरण
 वो अट्टाहास अब भी सुनाई देते हैं
ज्ञानी सारे अब भी मौन हैं
 दुर्योधन दुःशासन को बचाते शकुनि अब भी दिखाई देते हैँ



      १९
 खर्च करने आये हैं
 उम्र हम जिन्दगी के बाजार में
चलो कुछ नेकियां खरीद लेते हैं



         २०
आम आदमी ने बङी नेकियां की और दरिया में डाल दी
 खास ने छोटी मोटी नेकियां की, कुछ छीन ली, कुछ खरीद ली
 और पोटली बनाकर बाजार में बेचने चल दिया



          २१
मेरी कहानी में सबसे खूबसूरत मेरे बचपन वाला किरदार था


        २२
 कहानियों का बिछौना
 ख्वाबों की चादर
 बचपन में नीन्द की सैर यूं हुआ करती थी


          २३
 सात रंग नहीं चाहिए इन्द्रधनुष के
 बस इक तेरा रँग दे दे जरा सांवला सा ।


           २४
 रोज भूख के चले आने से बहुत परेशान था वो शख्स
 कल रात जिसने विष खाकर सासों कि किवाङो को बन्द किया था ।


          २५
 सब से ज्यादा भीङ हमारे आसपास तब होती है , जब हम अकेले होते हैँ ।




         २६
 अल्फाजों तुम बरसते रहना यूं ही...
 कागज भिगोते रहना मन के ....


        २७
उस बच्चे लिए भी आशीर्वाद लिखे होंगे किसी ने
सङक पर जो एक रुपये में करोङो दुआये बेचता है ।



            २८
तुम्हे फिर लौटा लाने की
जिद है सूरज को रात में उगाने की



            २९
कलम चुभी कागज को
 और आह शब्द बनकर पन्ने पर उभर गई
 इस तरह बनी दर्द की कहानी ...


            ३०
फटे पुराने कपङे पहने
मुरझाये सिकुङे जिस्मों के संग
 इक हिन्दुस्तान कचरा बिन रहा है
 गमों के ढेर में खुशियों की तलाश को .....


          ३१
 जिन्दगी टेबल पर पङी घङी में बीत रही है .... आहिस्ता आहिस्ता ...



          ३२
 जो चुप है वो आसमान है
 जमीं पर तो आजकल शोर बहुत है


          ३३
 खुद को समझने की कोशिश में
आईना किताब कर रखा है आजकल ।


        ३४
 जर्जर अन्धेरे कमरे के
 रोशनदान से
रोशनी ताकती है
अन्धेरों में रहने वालों के
मन मेँ झांकती है


       ३५
गरुर कि गठरी सिर उठाकर ना चलना


         ३६
मन्दिर-मस्जिद छोङ
कुछ रैनबसेरे बनाते हैं
चलो "धर्मनिरपेक्ष" बन जाते हैं



          ३७
सबसे ज्यादा सच
 फसाने , किस्से
 जिन्दगी की असलियत
 सब ढेर में पङे है हर घर में ।
 आज अखबार कल रद्दी कह पटकते हैं सब ।


             ३८
उग आती हैं
तुम्हारी यादें
स्मृति पटल पर
बिना चाहे
 खरपतवार की तरह ...


            ३९
शहर भर में दौङते फिरते हैं
 खुद से नावाकिफ
 मरे हुए जिन्दा लोग .....


          ४०
तेरे बिना मैं
 सालों से अधूरी पङी
किसी इमारत सी
 पूरी होने के अनन्त इन्तजार में


      ४१
दोनों तरफ से छीली गई पेन्सिल देखकर
फिर नजर आ गई बचपने की तस्वीर कोई 



          ४२
हर कविता
हर कहानी
हर किताब
 जैसे लिखी जा रही है
आजकल मुझ पर ही
 दुनिया कैसे जान गई
 "जिन्दगी " 
तेरे बारे में तो मैने किसी को बताया भी नहीं



          ४३
 राजनीति दुर्बल
स्वार्थी छल और द्वेष से परिपूर्ण....
नेता या राजा नहीं
 राष्ट्र फिर एक" चाणक्य" मांगता है ...


          ४४
तुम्हे नब्ज थमा दी थी
 अपना हकीम जान
 और तुम काट-पीट गये
 कलाई
बहता रहा लहू
 तुम मुर्दा कर छोङ गये
 मुझे


         ४५
थोङा बादलों को बायें सरका कर
 चांद में देख लिया है अक्स तेरा
अब उम्मीद फिर चमक उठी है
आसमां में पङी इस चांदी के जैसे


           ४६
तन्हाईयां कतराती है इस ओर आने से
तेरी यादों के सिपहलसार
 पहरेदारी करते हैं यहां


           ४७
 जरुरी नहीं शब्द लोचदार हो
हर वाक्य मेँ अलंकार हो
जो तुझे रुह तक छू आये
बस वही है इक
 "सुन्दर कविता "


         ४८
 इस शहर में एक नंबर से
 पहचाना जाता है मेरा आशियाना ,
 गाँव में तो मेरे घर को सब
 नाम से जानते थे ....


           ४९
 बहुत ढूंढा था उनको
जो चले गए अनंत में ....
आज नजर आये है वो
 कुछ बेजान तस्वीरों में ....




         ५०
 भटकते फिरते हैं
 उनिन्दी से
 आंखों के रेगिस्तान में
खानाबदोश सपने ।



            ५१
तुम्हारी यादें
 नल से कतरा कतरा टपकते
 पानी सी हैं
सन्नाटे में
शोर मचाती हैं
लेकिन व्यर्थ ही बह जानी हैं 



            ५२
कुछ आशायें
 फेंक दी है सूखे कूए में
खुद का मर्डर यूं किया है ....


          ५३
 तुम "मिराज "की तरह हो
 बस तुम्हे अगले ही पल पा लेने की तृष्णा में
कोसो दूर भटकती रही हूँ
 इस अनन्त रेगिस्तान मे




           ५४
 तुम्हारी और मेरी
 वो पसंदीदा बुक
 अब धूमिल होकर पङी है
लाइब्रेरी की उसी शेल्फ में
जहां उसे पहले पढने की जिद में
 लङे थे हम
 पहली बार


            ५५
 बङी बङी किताबें
पङी हैं
सङक बनकर यहाँ
हर किताब में
बनती बिगङती हैँ
 अगणित कहानियां
अधूरी कहानियाँ






माचिस की डिब्बियाँ

सहेज कर रखते हैं
सब रिश्तो की तीलियाँ करीने से ...
 बुजुर्ग हमारे
" माचिस की डिब्बियाँ "होते हैं ...

Monday, January 13, 2014

वत्सला

"बच्चे तो ईश्वर  का रूप होते है , अपने इश्वर से श्रम करवाओगे तो पाप के भागी बनोगे !
बचपन बोझ उठाने के लिए नहीं है !
ये तो आसमान में पतंग उडाने, बारिश के पानी में कागज की नाव चलने के लिए है "
  जानी मानी सामाजिक कार्यकर्ता नीलिमा जी ने  कल शहर की बाल विकास समिति की अध्यक्ष के रूप में शपथ लेने के बाद अपना भारी भरकम भाषण इन पंक्तियों के साथ समाप्त किया तो पूरा हॉल तालियों से गूँज उठा ! वे सुबह शपथ ग्रहण के बाद से ही काम में लग गई और ३८ बच्चो को मुक्त करवाया उन्होंने कहा  बाल मजदूर रखने वालों के खिलाफ सख्त से सख्त कार्यवाही की जायेगी और इन बच्चों कि शिक्षा इत्यादि का पूरा प्रबंध किया जायेगा !"

सुबह सुबह  चाय की चुस्कियो के साथ नीलिमाजी जी अखबार में अपने बारे में पढ़ रही थी कि तभी मोबाइल पर उनकी भाभी का फोन आया !  कुछ देर बात करने के बाद उन्होंने गंगा को आवाज दी और पुछा
 "क्यों री गंगा संजू कितने बरस का हो गया ?
 "मैडम १० का होगा मार्च में " 
अरे वाह तब तो वो काफी बड़ा हो गया है, कल से उसे त्रिवेणी नगर  में भाभीजी के यहाँ भेज देना , नौकर काम छोड़ कर चला गया है ! रहना खाना सब वही होगा संजू का "
"शुक्रिया मैडम " आपने उसे भी काम लगा दिया !

गंगा मैडम का गुणगान करने लगी !
नीलिमाजी फिर से अखबार में अपने बारे में खबर पढ़ने में व्यस्त हो गई जिसका शीर्षक था - "वत्सला " !