Friday, November 29, 2013

सन्नाटे से शोर तक का सफर

पता नहीं सृष्टी का आरम्भ दिन से हुआ या रात से । जरुर रात ही रही होगी जो जागती रही होगी रोशनी के इन्तजार में ,जैसे कि ये आज की रात है । पत्थर की तरह मौन रात । सन्नाटे पहरेदारी कर रहे हैं, चैन की नीन्द सुलाने की पूरी कोशिश । लेकिन भीतर जो चोर छुपा बैठे है वो बाहर आने को अकुला रहा  है , शान्त पङे किनारे को जैसे समन्दर की लहरे खुद के साथ ले जाना चाहती हो ।
मैं रजाई में दुबकी रोज की तरह यादों का फ्लैशबैक शुरु कर रही हूँ , कहाँ से शुरु करु ? तुम पहली बार मिले थे तब से या फिर जब " मुझे मिले" थे तब से ? या जब मुझमें मिल नहीं पाये थे तब से? रोज की तरह शुरु से ही शुरुआत हो गई ।
पहली बार मिलने से लेकर पहली बार बिछङने तक की सब यादें निकाल लाई हूँ । जी हाँ , पहली बार बिछङे हैं , फिर से मिलना है न ।

सन्नाटे और रात  बहुत खूबसूरत है , मैं जो चाहूँ वो सोच रही हूँ , तुम्हारा साथ महसूस कर  रही हूँ , दिन का उजाला मुझे कैद किये रखता है , रात रिहाई दे देती है ।जरुर इश्वर ने आधी दुनिया रात में ही बनाई थी , सोच समझ कर, चैन से, अपनी पसन्द की दुनिया ।

मेरे चारों ओर शोर मचा हुआ है , ये शोर मैने किया है । मैंने बनाया है । मैं इस शोर में डूबी जा रही हूँ । किनारे को लहरें खुद में बहा ले जा रही हैँ।

बाहर का सन्नाटा अब जाने को है । जैसे कोहरे की चादर धीरे धीरे गायब होती है । और मेरी यादों की पिक्चर भी खत्म हो रही है । ये देखो , सूरज सीढीयाँ चढ रहा है, और पन्छी छतो की मुन्डेर थामने लगे हैँ ।मैं रोज की तरह लाल आखें लिये उनिन्दी सी उठ बैठी हुँ ।

मेरी रोशनी का इन्तजार शायद आज खत्म हो । शायद आज तुम मिल जाओ, फिर से बिछङने को ।

Thursday, November 28, 2013

गाँव मर गया

एक रोज मैं  गांव छोड़ आया ..

सारे संगी साथी 
टूटे  हुए कंचे , खेल में जीती सीपियाँ
माचिस की डिब्बिओं से बनी रेल
और वो पुराना टायर ...
सब सहेज रखे थे अब तक
मैं वो बचपन के टुकड़े तोड़ आया ..
एक रोज मैं गांव छोड़ आया...


वो गोबर के लेप वाला घर
हलके भूरे रंग वाले किवाड़..
जिनके पीछे छुपता था मुन्नी को  डराने को
वो आँगन
जहाँ तुलसी के चारो और दौड़ता था
जब माँ मारने को आती थी
 वो छत जो दीवार से कभी ढकी न गई
मैं घर का हर एक कोना मरोड़ आया...
एक  रोज मैं  गांव छोड़ आया ..


वो गलियां, वो सौंधी मिटटी
वो  बरसात में चलती नाव
वो बरगद पर बीतने वाली गर्मी को छुट्टी
और ठिठुरन वाली सर्दी
परचूने वाले भीमा काका
मीठी संतरे की गोली वाली बूढी माई
मेरे हर एक रिश्ते को उल्टा मोड़ आया ..
एक रोज मैं गांव छोड़ आया .


तब से रुका नहीं हूँ मैं
 जिस रोज मैं गांव छोड़ आया ...
एक उम्र के बाद यूँ ही वहाँ का खयाल आया
मुट्ठी भर वक्त साथ ले निकल पड़ा उस जगह को
जहाँ मैं अपने पांव छोड़ आया ....


लेकिन बहुत बदल गया है मेरा गांव
अब यहाँ पर भी नहीं मिलती बचपन की निशानियाँ..
कच्चे-पक्के  घर , हलके भूरे किवाड
आँगन बीच खड़ी तुलसी ,सौंधी वाली मिट्टी
और गर्मी वाली छुट्टी ...

यहाँ पर भी है अब पक्के घर , सीमेंट की गलियां
कम  होते पेड़ , दौड़ती हुई गाडियाँ..
बोतल वाला दूध , विडियो गेम और इन्टरनेट
मन का सूनापन , रिश्तों में खालीपन


क्या हुआ जाने यहाँ ये बदलाव क्यों आया ...
मैं ही तो कही शहर को गांव तो नहीं लाया
या फिर गांव खुद को ही किसी और गाँव में  छोड़ आया ...



















Wednesday, November 27, 2013

तुम वक्त हो गए हो

गये हो ऐसे के वापिस लौट कर नहीं आते ..
मुड कर देखने पर उभरता है चलचित्र
और बहने लगते है दोनों आसमानों से आंसू

याद का पौधा समय के साथ पेड़ बन गया है
बहुत सींचा है इसे ...

मेरे हर दिन को जैसे कैद कर रखा है तुमने
और महीनो को जकड रखा है ..
सालों पर भी अब बेडियाँ डाल दोगे तुम ....

बीतते  जा रहे हो ..
छूटते जा रहें  हो ...
फिर  भी साथ हो ...

तुम "वक्त " हो गए हो जैसे !!

Saturday, November 23, 2013

आइना

क्या याद है तुम्हे ?
एक दिन एक आइना ले आये थे तुम
किनारों पर नीले -हरे रंग की नक्काशी
और चारों कोनों पर बने थे गुलाब के फूल

सामने दीवार पर टांकते हुए बोले थे
ये हमारे लिए है
हमारे  स्वप्न की परिणीति
और जब हम साथ खड़े हुए थे उसके सामने
हमारे  अक्स नजर आ रहे थे
साथ -साथ
एक साथ
लग रहा था जैसे कोई पिक्चर हो
किसी खूबसूरत सी नीली-हरी फ्रेम में जड़ी
सदा के लिए बांधे "हमे "
यूँ ही एक साथ


लेकिन भूल गई थी में
आईने में जो था वो परछाई  थी
आभासी  था वो दृश्य
जैसे स्वप्न होता है कोई
क्षणभंगुर


और फिर एक दिन
पत्थर  लेकर  कही से तुमने
तोड़ दिया वो स्वप्न
जो "हमने " जिया था
और फिर मुड़कर भी ना देखा ...
चुभे थे उसके तेज टुकड़े मुझे
बहा था रक्त उन घावों से


आज भी समेट रही हूँ वो बिखरे टुकड़े
कोशिश कर रही हूँ फिर से
आइना बनाने की ...

जो  टुकड़े चुभे थे पैरों में
उन्हें हाथों से निकलने की
और बहते हुए रक्त को रोकने की ..
पैरों में बेड़ियों की तरह पड़ गए हैं गहरे घाव
जो मुझे चलने नही देते

अरे सुनो
एक बार लौटकर जरा इनपर
मरहम लगा जाओ  !!





Thursday, November 7, 2013

जो दिख रहा है वो आभासी है

जैसे पृथ्वी  को आकाश  ओढ़े
तुमने मुझे घेर रखा है 
देखने में लगता है मिले हो तुम मुझमे
जरा  सा आगे चलू तो
छू लूंगी उस क्षितिज को
और पा लूंगी तुम्हे ....
लेकिन  अंनत है ये यात्रा
इस सफर की केवल' शुरुआत' ही है
भूल गए हैं इश्वर इसकी मंजिल बनाना ...
छोर  पाने की कोशिश में
चाहे में चढूँ कितनी ही सीढ़ियाँ..
लेकिन नहीं पहुँच पाऊँगी तुम्हारी छत तक

क्यों की

धरती को ढके ये अम्बर
आभासी ही तो है ....











Monday, October 28, 2013

एक सड़क ये भी

ये वो सड़क है जो सुनसान ही रहती है ..
इसने  नहीं देखी  है गाड़ियों की रौनकें ..
इसने नहीं देखी है अपनों से मिलने वालो की खुशी ..

इसने नहीं देखा अमीर गरीब का फर्क ....
इसके  किनारों पर कोई दुकाने नहीं
जहाँ इसने मचलते बच्चों  को देखा हो साईकिल के लिए
कोई  घर भी नहीं है यहाँ
जिसके चौखट पर जलते बल्ब ने रोशन किया हो इसे रात में


ये वो सड़क है जहाँ से कोई गुजरना नहीं चाहता ..
मौन की रस्सी से बंध जाते है सब यहाँ से गुजरते हुए
नहीं चाहते इसकी मंजिल तक जाना कोई कभी ..

इस सड़क ने बिदाई देखी  है
दुःख और करुणा देखी है ..
रुदन देखा है
भय  देखा है ..

लेकिन इससे ये ना समझना की
 मनहूस है ये सड़क

क्योंकी

 इस सड़क ने देखा है अंतिम सत्य
इसने  देखा है मोक्ष ..
इसने सुना है केवल इश्वर का नाम
इसने भेद नहीं देखा
इसने देखा है की हर इंसान बराबर है ..

ये ले जाती है उस राह पर जो हर इंसान की मंजिल है ...

ये सड़क शमशान को जाती है ..
और
इसके किनारे पर कब्रिस्तान है ...










Wednesday, October 23, 2013

प्रश्न

प्रश्नों से भरा है ये जीवन ..
ये  सृष्टि
आदि से अंत तक  है प्रश्न
क्या तलाश होगी पूर्ण सब उत्तर पाने की ??


क्या ये प्रश्नचिन्ह बना रहेगा हम सबके बाद ??
या , कोई स्थान है जहाँ लिखे पड़े हैं सारे उत्तर
किसी  शिला लेख पर
या दबे पड़े हैं कहीं प्रश्नों की अगणित चट्टानों के बोझ तले??

क्या  यूँ ही ये प्रश्नचिन्ह  बढते जायेंगे ??
और  हर प्रश्न बना रहेगा प्रश्न ही
उत्तर इनके कभी न मिल पाएंगे ?

जैसे कभी नहीं मिल पाई है ..
धूप और छाया को बाँटती वो पूर्ण लकीर  !!

Monday, October 14, 2013

रावण

लो जी एक और दशहरा आ कर चला गया । जला लिये रावण हमने । वैसे यदि सोचे तो अब तक कितने रावण जला चुके हम। मैं तो हिसाब ही नहीं लगा सकती , बचपन से ही अंको से परेशान रही हूँ लेकिन हर परेशानी का तोङ होता है यहाँ । तो शायद अब तक असंख्य रावण जल चुके हमारे यहाँ । हर साल हजारों रावण जला देते हैँ हम ।

लेकिन इतने रावण आते कहाँ से हैं ?
हम ही तो बनाते है उन्हे । हर साल" अब तक का सबसे ऊँचा रावण"  । रावण का कद और संख्या समाज में फैल रही बुराई के अनुपात मेँ बढ रहा है । बङे बङे रावण के साथ हर गली मोह्लले के अलग अलग रावण होते हैं । कहीं कही तो हर घर का अपना रावण भी होता है ।

प्रश्न है कि इन सबका औचित्य क्या है ? विजयदशमी बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीकात्मक  त्यौहार  है । तो फिर ये तो सहज सरल प्रकार से भी मनाया जा सकता है न ।

अगणित पुतले बनाना , हर बार पहले से अधिक विशाल, हर घर में अलग , ये सब हमारी नित्य बदतर हो रही सामाजिक दशा  से उपजी कुण्ठा तो नहीं जो इस प्रतीक को फैला फुला रही है ?

यदि ऐसा है तो क्यो न हम खुद की बुराई को जला देँ ? मन के गलत भावो , विचारों कि शुद्धि करेँ । रावण केवल पुतले जला देने से नहीं मरेगा , वो तो प्रतीक  मात्र है । स्वँय के भीतर का रावण मारना जरुरी है । ये प्रण जरुरी  है कि हर वर्ष रावण की संख्या और उसका बल कम होगा , बढेगा नहीँ।

हमारी मनः स्थिती , निराशा , कुण्ठा से भीतर का विकार भी बढेगा और उसकि इस प्रकार की बाह्य  अभिव्यक्ति से प्रदूषण।

सच्ची विजयदशमी मनाने के लिए भीतर को बदलना होगा तभी इसकी सार्थकता सिद्ध होगी ।

Thursday, October 10, 2013

शब्दों के कोलाहल में , तुम्हारा मौन सुनाई देता है ..



हलचल है हर तरफ
हर तरफ अजीब सा शोर है ...
मैं झाँकू खुद के ही मन में
लगता  है वो कोई और है ..
सुबह को  जागू जब मुझे
ये  दिन अब खाली  लगता है ..
तूफ़ान ह्रदय का भीतर को
बाहर आने को मचलता है ..
यादों  का चलचित्र फिर ,नैनों में दिखाई देता है ..

शब्दों  के कोलाहल में , तुम्हारा मौन सुनाई देता है ..



मेरी  दोपहर अब कुछ भारी भारी लगती है ..
उठती है हुक कैसी  अजब बीमारी लगती है
दर्द सारा जब मेरी आखों से छलकता है
मेरे संग तब मेरा एक आइना बिलखता है ..
ये बहता गीला समंदर
हर वक्त दुहाई देता है ..
शब्दों  के कोलाहल में , तुम्हारा मौन सुनाई देता है ..


शाम  तो बीती ढलता दिन देखकर
रात धीरे से उगती है ...
बिना कहे कुछ चले गए क्यों तुम
ये बात शूल सी चुभती है ...
तुझसे  बंधी ये प्रीत छुडा लु
खुद को मैं फिर पीछे बुला लु ..
ये सब करने कि पर मुझको ..
न वक्त रिहाई देता है ....

शब्दों  के कोलाहल में , तुम्हारा मौन सुनाई देता है ..



Wednesday, October 9, 2013

नेत्रहीन



चला जा रहा था वो
दौड़ती हुई सड़क किनारे
हाथ में सफ़ेद लाठी लिए ....

खुली आँखों में बंद है आँखे उसकी
रौशनी में छुपे अँधेरे ही दिखते है उसे ...

कर रही होगी उसका इंतज़ार
सड़क के उस पार बैठी नन्ही उसकी ..
आज  दिवाली को लायेंगे रौशनी का सामन बापू ...

 सड़क  पार जाने को
कुछ कदम वो बढाता है ..
एक दो आवाज आने जाने वालो को देता है ..
शायद  कोई ले जाये उस पार ..


अनसुनी आवाज साथ लेकर
चल पड़ा खुद ही ..

 लेकिन बीच में ही टक्कर से उछल कर
पहुँच गया उस पार ..
जहाँ से नही आ पायेगा वो इस पार कभी ..

 क्यों कि ..
सड़क पर चलने वाले "नेत्रहीनों" कि कमी नहीं .....