पता नहीं सृष्टी का आरम्भ दिन से हुआ या रात से । जरुर रात ही रही होगी जो जागती रही होगी रोशनी के इन्तजार में ,जैसे कि ये आज की रात है । पत्थर की तरह मौन रात । सन्नाटे पहरेदारी कर रहे हैं, चैन की नीन्द सुलाने की पूरी कोशिश । लेकिन भीतर जो चोर छुपा बैठे है वो बाहर आने को अकुला रहा है , शान्त पङे किनारे को जैसे समन्दर की लहरे खुद के साथ ले जाना चाहती हो ।
मैं रजाई में दुबकी रोज की तरह यादों का फ्लैशबैक शुरु कर रही हूँ , कहाँ से शुरु करु ? तुम पहली बार मिले थे तब से या फिर जब " मुझे मिले" थे तब से ? या जब मुझमें मिल नहीं पाये थे तब से? रोज की तरह शुरु से ही शुरुआत हो गई ।
पहली बार मिलने से लेकर पहली बार बिछङने तक की सब यादें निकाल लाई हूँ । जी हाँ , पहली बार बिछङे हैं , फिर से मिलना है न ।
सन्नाटे और रात बहुत खूबसूरत है , मैं जो चाहूँ वो सोच रही हूँ , तुम्हारा साथ महसूस कर रही हूँ , दिन का उजाला मुझे कैद किये रखता है , रात रिहाई दे देती है ।जरुर इश्वर ने आधी दुनिया रात में ही बनाई थी , सोच समझ कर, चैन से, अपनी पसन्द की दुनिया ।
मेरे चारों ओर शोर मचा हुआ है , ये शोर मैने किया है । मैंने बनाया है । मैं इस शोर में डूबी जा रही हूँ । किनारे को लहरें खुद में बहा ले जा रही हैँ।
बाहर का सन्नाटा अब जाने को है । जैसे कोहरे की चादर धीरे धीरे गायब होती है । और मेरी यादों की पिक्चर भी खत्म हो रही है । ये देखो , सूरज सीढीयाँ चढ रहा है, और पन्छी छतो की मुन्डेर थामने लगे हैँ ।मैं रोज की तरह लाल आखें लिये उनिन्दी सी उठ बैठी हुँ ।
मेरी रोशनी का इन्तजार शायद आज खत्म हो । शायद आज तुम मिल जाओ, फिर से बिछङने को ।