स्वर्ण मुद्राओं के बादल
बरसते है आजकल
और ज़मीन पर
बोते हैं
घृणा , द्वेष ,कटुता .....
स्वार्थ के वृक्षों से
अटी पड़ी है पृथ्वी
जंगल हुई जा रही है ....
हम क्रोध के फल खा रहे है
और मृत्यु को उगा रहें है
समय से पूर्व ...
वाणी से चाकू छुरिया बोलते हैं
संवेदना मार कर
गाड़ दी है पाताल में...
और मानवता ...
किसी कोने में पत्थर हो बैठी है मानवता
फिर से जी उठने को
अहिल्या कि तरह
राम के इंतज़ार में ...
बरसते है आजकल
और ज़मीन पर
बोते हैं
घृणा , द्वेष ,कटुता .....
स्वार्थ के वृक्षों से
अटी पड़ी है पृथ्वी
जंगल हुई जा रही है ....
हम क्रोध के फल खा रहे है
और मृत्यु को उगा रहें है
समय से पूर्व ...
वाणी से चाकू छुरिया बोलते हैं
संवेदना मार कर
गाड़ दी है पाताल में...
और मानवता ...
किसी कोने में पत्थर हो बैठी है मानवता
फिर से जी उठने को
अहिल्या कि तरह
राम के इंतज़ार में ...
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