Tuesday, March 24, 2015

मानवता

हम
लिबास की तरह
बदलते हैं
खुद को

पहनते हैं
रोज नया भ्रम कोई

स्वयं को छिपाने के प्रयास में
स्वयं से ।

हम
कई आवरणों में ढके

घुटते रहते हैं

और घुटन मिटाने को
फिर ओढ़ते हैं
आवरण नया

हम
भूल जाते हैं

सत्य पारदर्शी होता है

और
स्वयं के सत्य का बोध
"मानवता"




Monday, March 16, 2015

दीवारों के लोग

अब
घरों में लोग
दीवारों की तरह रहते हैं

मौन
भावहीन
कभी शुन्य
कभी परस्पर ताकते

संवाद से परे

बोझ ढोते
छत बचाने की कोशिश में
नींव गलाते लोग....

दीवारों की तरह रहते हैं घरों में अब ।

Wednesday, March 4, 2015

लौटा लो बचपन को

यादों की अलमारी खोलें
पीछे छूटा बचपन टटोलें

दौड़ लगायें जंगल पहुंचे
मोगली संग पेड़ों पर झूलें

होमवर्क की टेंशन छोड़े
पार्क में जाकर तितली छू लें

क्रिकेट का मतलब बैटिंग हो
पहली बॅाल" ट्राइ" वाली खेलें

तालाब में पत्थर फेंके
कंचें जीते अमीर हो लें

कॅापी में मिले गुड गिनें
रंग बिरगीं चॅाक चुरा लें

बेस्ट फ्रेंड की कट्टी पर
आंखे आंसुओं से भिगो लें

मम्मी का बर्थडे है
वाटर कलर से कार्ड बना लें

गर्मी वाली छुट्टी में
चम्पक, बालहंस वाला पिटारा खोलें

बेवजह हसें, पापा से पिटें
चोट लगे तो जोर से रो लें

चलो
अलमारी फिर से खोलें
बचपन याद रखें

बाकी सारी जिन्दगी भूलें