हम
लिबास की तरह
बदलते हैं
खुद को
पहनते हैं
रोज नया भ्रम कोई
स्वयं को छिपाने के प्रयास में
स्वयं से ।
हम
कई आवरणों में ढके
घुटते रहते हैं
और घुटन मिटाने को
फिर ओढ़ते हैं
आवरण नया
हम
भूल जाते हैं
सत्य पारदर्शी होता है
और
स्वयं के सत्य का बोध
"मानवता"