Thursday, August 25, 2016

अबूझ स्वप्न

दिशाहीन दिशाएं
पासे फेंकती हैं
और
बाँध लेती हैं मुझे
अगणित रस्सियां

मेरे हाथ में
तलवार है
लेकिन बोध नहीं

रस्सियां काटना
आत्मा काटने जैसा है

मेरा सिर
धड़ से अलग हो चुका है

इसी मार्ग से
ज्ञान प्रवेश करेगा
लौ जलेगी
और
शरीर ढूंढेगा

नव चेतना

Monday, March 7, 2016

मकान

बूढे बरगद के
सामने खङा मकान
बहुत व्यस्त रहता है आजकल

कुछ सालों से उसका
काम बढ गया है
वो अपनी दीवारें संभालता है
और
कहीं पङी दरार को हल्की खरोंच कहकर टालता है
सीलन से पङी झुर्रियों को
उम्र का असर बोलकर हंस देता है

दीमक के कुतरे हुए
खिङकी-दरवाजे
कैंसर के घाव देते हैं
और
उनसे उठती टीस उसे अधमरा करती है

लेकिन
वो व्यस्त रहता है

मकङियो की चहलकदमी से
उसका सूनापन दूर होता है

वो
अपने सुख-दुख उन्हें कहता है

मकङियां उसे निराश नहीं करती
उसकी सब बातें सुनती हैं

तरह तरह के करतब दिखाकर
मन बहलाती हैं उसका

दिन रात सूत कातकर
उसके घाव ढकने की कोशिश करती हैं

मकङियो की बुनी चादर
रोकती है
किसी डर को उस तक आने से

मकङियां उसके जिस्म को
"घर" कहकर बुलाती हैं
और
इस नाम को सुनकर
वो बहुत खुश होता है

अब वो अपने ताले नहीं संभालता
ना ही
बूढ़े बरगद को आवाज देकर पूछता है
पश्चिम से आने वाले का हुलिया

क्योकिं
वो जान गया है
कि
एक दिन
जब वो गिरकर
तोड़ रहा होगा दम
तब भी
उसके साथ
जरूर ही होगीं

ये मकङियां

Sunday, March 6, 2016

धूप का टुकङा

सातवीं मंजिल की
बालकनी से होकर
दबे पांव चला आता है
धूप का एक टुकङा

और
छू कर देखता है
डाइनिंग पर पङी आधी भरी प्लेट को

फिर
जरा दायें सरक कर
सुखा देता है
कुर्सी पर बेतरतीब पङा
गीला तौलिया

और
पोंछ देता है
ग्लास से छलका पानी

सब दिन
ताकता रहता है
भरे हुए खाली घर को

फिर
जाते जाते चूम लेता है
दीवार पर टंगी उसकी तस्वीर

मां अब
ऐसे ही मिलती है उससे
धूप का टुकङा बनकर

Saturday, March 5, 2016

खोज

क्या जरूरी है
गुम हो जाना
फिर भटकना
और ढूंढना

क्यूं ना भटक कर पहुंचा जाये वहां,  जहां से ढूंढना ही ना पङे खुद को !

Thursday, March 3, 2016

उम्मीद

उसने
जर्जर
बूढ़े दरवाजे पर
कुण्डी लगाई
और
ताले की जगह
अटका दिया
एक जंगली फूल

-खुशियों
तुम्हारा स्वागत है
हर हाल में!

Monday, February 1, 2016

पानी

जिस दिन
पत्थर और सूरज
मिलकर
करेगें बात
एक दूसरे से

एक
पिघलने लग जायेगा
दूसरे की मन्द होती आग में

और जो बचा रहेगा
वो पानी होगा

उस रोज
मैं भी बता दूगीं

हां,
भ्रम और अहं
नहीं टिकते
अन्त के आगे

सब कुछ पिघल जाता है
और जो बचा रहता है

वो "पानी" होता है!!

Sunday, November 8, 2015

बचा हुआ कुछ

आखिरी बार
जब तुम खिलखिलाई थी
वो लम्हा टांग दिया था दीवार पर

अब तुम्हे टकटकी लगाये देख रहे हैं
परदे सारे

इधर उधर बिखरी किताबें
कुछ कहना चाहती हैं

बेतरतीब सी टेबल
तुम्हे पकङकर
करीने से सजना चाहती हैं

कमरा
हैरान सा ताक रहा है

तुम जाने क्यूं
चुप और उदास हो

सुनो !
जब सब खत्म होता है
सब कुछ तब भी खत्म नहीं होता
खालीपन के टुकङे बचे रह जाते हैं
तुम अपना खालीपन समेटो
और मुस्कुराओ

क्यूकीं

तुम्हे
आवाज दे रहा है
दीवार पर टगां
खिलखिलाता लम्हा