दिशाहीन दिशाएं
पासे फेंकती हैं
और
बाँध लेती हैं मुझे
अगणित रस्सियां
मेरे हाथ में
तलवार है
लेकिन बोध नहीं
रस्सियां काटना
आत्मा काटने जैसा है
मेरा सिर
धड़ से अलग हो चुका है
इसी मार्ग से
ज्ञान प्रवेश करेगा
लौ जलेगी
और
शरीर ढूंढेगा
नव चेतना
.....मन का .....
दिशाहीन दिशाएं
पासे फेंकती हैं
और
बाँध लेती हैं मुझे
अगणित रस्सियां
मेरे हाथ में
तलवार है
लेकिन बोध नहीं
रस्सियां काटना
आत्मा काटने जैसा है
मेरा सिर
धड़ से अलग हो चुका है
इसी मार्ग से
ज्ञान प्रवेश करेगा
लौ जलेगी
और
शरीर ढूंढेगा
नव चेतना
बूढे बरगद के
सामने खङा मकान
बहुत व्यस्त रहता है आजकल
कुछ सालों से उसका
काम बढ गया है
वो अपनी दीवारें संभालता है
और
कहीं पङी दरार को हल्की खरोंच कहकर टालता है
सीलन से पङी झुर्रियों को
उम्र का असर बोलकर हंस देता है
दीमक के कुतरे हुए
खिङकी-दरवाजे
कैंसर के घाव देते हैं
और
उनसे उठती टीस उसे अधमरा करती है
लेकिन
वो व्यस्त रहता है
मकङियो की चहलकदमी से
उसका सूनापन दूर होता है
वो
अपने सुख-दुख उन्हें कहता है
मकङियां उसे निराश नहीं करती
उसकी सब बातें सुनती हैं
तरह तरह के करतब दिखाकर
मन बहलाती हैं उसका
दिन रात सूत कातकर
उसके घाव ढकने की कोशिश करती हैं
मकङियो की बुनी चादर
रोकती है
किसी डर को उस तक आने से
मकङियां उसके जिस्म को
"घर" कहकर बुलाती हैं
और
इस नाम को सुनकर
वो बहुत खुश होता है
अब वो अपने ताले नहीं संभालता
ना ही
बूढ़े बरगद को आवाज देकर पूछता है
पश्चिम से आने वाले का हुलिया
क्योकिं
वो जान गया है
कि
एक दिन
जब वो गिरकर
तोड़ रहा होगा दम
तब भी
उसके साथ
जरूर ही होगीं
ये मकङियां
सातवीं मंजिल की
बालकनी से होकर
दबे पांव चला आता है
धूप का एक टुकङा
और
छू कर देखता है
डाइनिंग पर पङी आधी भरी प्लेट को
फिर
जरा दायें सरक कर
सुखा देता है
कुर्सी पर बेतरतीब पङा
गीला तौलिया
और
पोंछ देता है
ग्लास से छलका पानी
सब दिन
ताकता रहता है
भरे हुए खाली घर को
फिर
जाते जाते चूम लेता है
दीवार पर टंगी उसकी तस्वीर
मां अब
ऐसे ही मिलती है उससे
धूप का टुकङा बनकर
क्या जरूरी है
गुम हो जाना
फिर भटकना
और ढूंढना
क्यूं ना भटक कर पहुंचा जाये वहां, जहां से ढूंढना ही ना पङे खुद को !
उसने
जर्जर
बूढ़े दरवाजे पर
कुण्डी लगाई
और
ताले की जगह
अटका दिया
एक जंगली फूल
-खुशियों
तुम्हारा स्वागत है
हर हाल में!
जिस दिन
पत्थर और सूरज
मिलकर
करेगें बात
एक दूसरे से
एक
पिघलने लग जायेगा
दूसरे की मन्द होती आग में
और जो बचा रहेगा
वो पानी होगा
उस रोज
मैं भी बता दूगीं
हां,
भ्रम और अहं
नहीं टिकते
अन्त के आगे
सब कुछ पिघल जाता है
और जो बचा रहता है
वो "पानी" होता है!!
आखिरी बार
जब तुम खिलखिलाई थी
वो लम्हा टांग दिया था दीवार पर
अब तुम्हे टकटकी लगाये देख रहे हैं
परदे सारे
इधर उधर बिखरी किताबें
कुछ कहना चाहती हैं
बेतरतीब सी टेबल
तुम्हे पकङकर
करीने से सजना चाहती हैं
कमरा
हैरान सा ताक रहा है
तुम जाने क्यूं
चुप और उदास हो
सुनो !
जब सब खत्म होता है
सब कुछ तब भी खत्म नहीं होता
खालीपन के टुकङे बचे रह जाते हैं
तुम अपना खालीपन समेटो
और मुस्कुराओ
क्यूकीं
तुम्हे
आवाज दे रहा है
दीवार पर टगां
खिलखिलाता लम्हा