वो वक्त भी खुद से हारा था
उस दिन बंटवारा था ...
जलती आग का उठता हुआ धुंआ था 
राम की खाला, रहीम की माँ का कत्ल हुआ था...
सरसों के खेतों में लाशों की फसल उगी थी 
ईमान की गर्दन हैवान के आगे झुकी थी ...
बांट डाले घर-बार
गम-त्यौहार
बन्द कर डाले वो द्वार,
 जिनपर  आने जाने की कहानियां लिखी हुई थी ...
तो फिर 
 सांसे लेना बँद क्यूं न किया मजहब बांटने वालों ने
हवा तो हिन्दु-मुसलमान ना हुई थी । 
 
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