१
खाली पन्ने गवाह हैँ
मेरी तन्हाई के ..
हाथों में कलम तो है
पर लिखने को कुछ नहीं रहा ...
२
कौन बुरा है कौन भला
क्या फर्क पङता है यहाँ मरने के बाद
सब" स्वर्गीय" ही कहलाते हैँ...
३
"निशा "
तुम सखी हो मेरी ..
कोलाहलो से
बचाने चली आती हो ...
रोज मुझे खुद से मिला जाती हो
४
आईना तुम खुद पर गुरुर ना करो
, दूसरों को उनके चेहरे हजार दिखाते हो ,
पर हर दफे चेहरो के साथ
तुम भी तो बदला जाते हो ।
५
मेरी पहली कमाई
किस बैंक में जमा रखी थी ,
आज दादी की पेटी में
" कन्चों की थैली" मिली तो याद आया ।
६
तन्हाई, खामोशी,
सन्नाटा, मौन ...
आज मिलकर
शोर मचा रहें है ,
बहुत कयामत दिखा रहे हैँ
७
दूरियाँ सब
जहाँ से मिटाने चली ।
खुद से खुद को
आज मिलाने चली ।
८
चलो कुछ किस्से
सुनाते हैं फिर से ....
छूटे वक्त को
पकङ लाते है फिर से ....
९
ना सीता दे अग्नि परीक्षा
कोई चीर हरण ना होने पाये ।
सब दुर्योधन सारे रावण
बस कथाओं में रह जाये ।
१०
गर खुश हो तुम
तो मुझे ना पढना
मेरी कहानी रोती है ।
मैं अब भी उस देस में हूँ
जहाँ इक बच्ची भूखी सोती है ...
११
इक घर कुछ यूँ बनाये ।
दीवारे खङी ना करें
दरवाजों से सजाएं ।
१२
वो निन्दिया
बहुत ही प्यारी थी ....
.जो दादी नानी की
कहानियों के साथ आती थी !
१३
जिन्दगी भी पतंग सी है-
खूबसूरत,
कभी लङखङाती
कभी शान्त तैरती,
हवा से बातें करती
और हश्र ये कि कटना है !!!!
१४
ताउम्र नहीं भरे
उस सङक पर पङे जख्म.....
कभी कोई
"नेता"
वहाँ से गुजरा न था !
१५
दादी कि सन्दूक
और
उसकी महक में छुपा वो
खुशियों का खजाना ....
आखों में आती थी अलग ही चमक
पाकर उसमें से मुट्ठी भर मेवे और
आना - दो आना.....
१६
अब उन्होने फौजी को भी काट दिया...
आधा हिन्दु, आधा मुसलमान में बांट दिया ।
१७
तुमसे मिले सारे लम्हे कागज पर रख छोङे
कौन कहता है वक्त को कोई थाम नहीं सकता
१८
अब भी होते हैं चीरहरण
वो अट्टाहास अब भी सुनाई देते हैं
ज्ञानी सारे अब भी मौन हैं
दुर्योधन दुःशासन को बचाते शकुनि अब भी दिखाई देते हैँ
१९
खर्च करने आये हैं
उम्र हम जिन्दगी के बाजार में
चलो कुछ नेकियां खरीद लेते हैं
२०
आम आदमी ने बङी नेकियां की और दरिया में डाल दी
खास ने छोटी मोटी नेकियां की, कुछ छीन ली, कुछ खरीद ली
और पोटली बनाकर बाजार में बेचने चल दिया
२१
मेरी कहानी में सबसे खूबसूरत मेरे बचपन वाला किरदार था
२२
कहानियों का बिछौना
ख्वाबों की चादर
बचपन में नीन्द की सैर यूं हुआ करती थी
२३
सात रंग नहीं चाहिए इन्द्रधनुष के
बस इक तेरा रँग दे दे जरा सांवला सा ।
२४
रोज भूख के चले आने से बहुत परेशान था वो शख्स
कल रात जिसने विष खाकर सासों कि किवाङो को बन्द किया था ।
२५
सब से ज्यादा भीङ हमारे आसपास तब होती है , जब हम अकेले होते हैँ ।
२६
अल्फाजों तुम बरसते रहना यूं ही...
कागज भिगोते रहना मन के ....
२७
उस बच्चे लिए भी आशीर्वाद लिखे होंगे किसी ने
सङक पर जो एक रुपये में करोङो दुआये बेचता है ।
२८
तुम्हे फिर लौटा लाने की
जिद है सूरज को रात में उगाने की
२९
कलम चुभी कागज को
और आह शब्द बनकर पन्ने पर उभर गई
इस तरह बनी दर्द की कहानी ...
३०
फटे पुराने कपङे पहने
मुरझाये सिकुङे जिस्मों के संग
इक हिन्दुस्तान कचरा बिन रहा है
गमों के ढेर में खुशियों की तलाश को .....
३१
जिन्दगी टेबल पर पङी घङी में बीत रही है .... आहिस्ता आहिस्ता ...
३२
जो चुप है वो आसमान है
जमीं पर तो आजकल शोर बहुत है
३३
खुद को समझने की कोशिश में
आईना किताब कर रखा है आजकल ।
३४
जर्जर अन्धेरे कमरे के
रोशनदान से
रोशनी ताकती है
अन्धेरों में रहने वालों के
मन मेँ झांकती है
३५
गरुर कि गठरी सिर उठाकर ना चलना
३६
मन्दिर-मस्जिद छोङ
कुछ रैनबसेरे बनाते हैं
चलो "धर्मनिरपेक्ष" बन जाते हैं
३७
सबसे ज्यादा सच
फसाने , किस्से
जिन्दगी की असलियत
सब ढेर में पङे है हर घर में ।
आज अखबार कल रद्दी कह पटकते हैं सब ।
३८
उग आती हैं
तुम्हारी यादें
स्मृति पटल पर
बिना चाहे
खरपतवार की तरह ...
३९
शहर भर में दौङते फिरते हैं
खुद से नावाकिफ
मरे हुए जिन्दा लोग .....
४०
तेरे बिना मैं
सालों से अधूरी पङी
किसी इमारत सी
पूरी होने के अनन्त इन्तजार में
४१
दोनों तरफ से छीली गई पेन्सिल देखकर
फिर नजर आ गई बचपने की तस्वीर कोई
४२
हर कविता
हर कहानी
हर किताब
जैसे लिखी जा रही है
आजकल मुझ पर ही
दुनिया कैसे जान गई
"जिन्दगी "
तेरे बारे में तो मैने किसी को बताया भी नहीं
४३
राजनीति दुर्बल
स्वार्थी छल और द्वेष से परिपूर्ण....
नेता या राजा नहीं
राष्ट्र फिर एक" चाणक्य" मांगता है ...
४४
तुम्हे नब्ज थमा दी थी
अपना हकीम जान
और तुम काट-पीट गये
कलाई
बहता रहा लहू
तुम मुर्दा कर छोङ गये
मुझे
४५
थोङा बादलों को बायें सरका कर
चांद में देख लिया है अक्स तेरा
अब उम्मीद फिर चमक उठी है
आसमां में पङी इस चांदी के जैसे
४६
तन्हाईयां कतराती है इस ओर आने से
तेरी यादों के सिपहलसार
पहरेदारी करते हैं यहां
४७
जरुरी नहीं शब्द लोचदार हो
हर वाक्य मेँ अलंकार हो
जो तुझे रुह तक छू आये
बस वही है इक
"सुन्दर कविता "
४८
इस शहर में एक नंबर से
पहचाना जाता है मेरा आशियाना ,
गाँव में तो मेरे घर को सब
नाम से जानते थे ....
४९
बहुत ढूंढा था उनको
जो चले गए अनंत में ....
आज नजर आये है वो
कुछ बेजान तस्वीरों में ....
५०
भटकते फिरते हैं
उनिन्दी से
आंखों के रेगिस्तान में
खानाबदोश सपने ।
५१
तुम्हारी यादें
नल से कतरा कतरा टपकते
पानी सी हैं
सन्नाटे में
शोर मचाती हैं
लेकिन व्यर्थ ही बह जानी हैं
५२
कुछ आशायें
फेंक दी है सूखे कूए में
खुद का मर्डर यूं किया है ....
५३
तुम "मिराज "की तरह हो
बस तुम्हे अगले ही पल पा लेने की तृष्णा में
कोसो दूर भटकती रही हूँ
इस अनन्त रेगिस्तान मे
५४
तुम्हारी और मेरी
वो पसंदीदा बुक
अब धूमिल होकर पङी है
लाइब्रेरी की उसी शेल्फ में
जहां उसे पहले पढने की जिद में
लङे थे हम
पहली बार
५५
बङी बङी किताबें
पङी हैं
सङक बनकर यहाँ
हर किताब में
बनती बिगङती हैँ
अगणित कहानियां
अधूरी कहानियाँ
खाली पन्ने गवाह हैँ
मेरी तन्हाई के ..
हाथों में कलम तो है
पर लिखने को कुछ नहीं रहा ...
२
कौन बुरा है कौन भला
क्या फर्क पङता है यहाँ मरने के बाद
सब" स्वर्गीय" ही कहलाते हैँ...
३
"निशा "
तुम सखी हो मेरी ..
कोलाहलो से
बचाने चली आती हो ...
रोज मुझे खुद से मिला जाती हो
४
आईना तुम खुद पर गुरुर ना करो
, दूसरों को उनके चेहरे हजार दिखाते हो ,
पर हर दफे चेहरो के साथ
तुम भी तो बदला जाते हो ।
५
मेरी पहली कमाई
किस बैंक में जमा रखी थी ,
आज दादी की पेटी में
" कन्चों की थैली" मिली तो याद आया ।
६
तन्हाई, खामोशी,
सन्नाटा, मौन ...
आज मिलकर
शोर मचा रहें है ,
बहुत कयामत दिखा रहे हैँ
७
दूरियाँ सब
जहाँ से मिटाने चली ।
खुद से खुद को
आज मिलाने चली ।
८
चलो कुछ किस्से
सुनाते हैं फिर से ....
छूटे वक्त को
पकङ लाते है फिर से ....
९
ना सीता दे अग्नि परीक्षा
कोई चीर हरण ना होने पाये ।
सब दुर्योधन सारे रावण
बस कथाओं में रह जाये ।
१०
गर खुश हो तुम
तो मुझे ना पढना
मेरी कहानी रोती है ।
मैं अब भी उस देस में हूँ
जहाँ इक बच्ची भूखी सोती है ...
११
इक घर कुछ यूँ बनाये ।
दीवारे खङी ना करें
दरवाजों से सजाएं ।
१२
वो निन्दिया
बहुत ही प्यारी थी ....
.जो दादी नानी की
कहानियों के साथ आती थी !
१३
जिन्दगी भी पतंग सी है-
खूबसूरत,
कभी लङखङाती
कभी शान्त तैरती,
हवा से बातें करती
और हश्र ये कि कटना है !!!!
१४
ताउम्र नहीं भरे
उस सङक पर पङे जख्म.....
कभी कोई
"नेता"
वहाँ से गुजरा न था !
१५
दादी कि सन्दूक
और
उसकी महक में छुपा वो
खुशियों का खजाना ....
आखों में आती थी अलग ही चमक
पाकर उसमें से मुट्ठी भर मेवे और
आना - दो आना.....
१६
अब उन्होने फौजी को भी काट दिया...
आधा हिन्दु, आधा मुसलमान में बांट दिया ।
१७
तुमसे मिले सारे लम्हे कागज पर रख छोङे
कौन कहता है वक्त को कोई थाम नहीं सकता
१८
अब भी होते हैं चीरहरण
वो अट्टाहास अब भी सुनाई देते हैं
ज्ञानी सारे अब भी मौन हैं
दुर्योधन दुःशासन को बचाते शकुनि अब भी दिखाई देते हैँ
१९
खर्च करने आये हैं
उम्र हम जिन्दगी के बाजार में
चलो कुछ नेकियां खरीद लेते हैं
२०
आम आदमी ने बङी नेकियां की और दरिया में डाल दी
खास ने छोटी मोटी नेकियां की, कुछ छीन ली, कुछ खरीद ली
और पोटली बनाकर बाजार में बेचने चल दिया
२१
मेरी कहानी में सबसे खूबसूरत मेरे बचपन वाला किरदार था
२२
कहानियों का बिछौना
ख्वाबों की चादर
बचपन में नीन्द की सैर यूं हुआ करती थी
२३
सात रंग नहीं चाहिए इन्द्रधनुष के
बस इक तेरा रँग दे दे जरा सांवला सा ।
२४
रोज भूख के चले आने से बहुत परेशान था वो शख्स
कल रात जिसने विष खाकर सासों कि किवाङो को बन्द किया था ।
२५
सब से ज्यादा भीङ हमारे आसपास तब होती है , जब हम अकेले होते हैँ ।
२६
अल्फाजों तुम बरसते रहना यूं ही...
कागज भिगोते रहना मन के ....
२७
उस बच्चे लिए भी आशीर्वाद लिखे होंगे किसी ने
सङक पर जो एक रुपये में करोङो दुआये बेचता है ।
२८
तुम्हे फिर लौटा लाने की
जिद है सूरज को रात में उगाने की
२९
कलम चुभी कागज को
और आह शब्द बनकर पन्ने पर उभर गई
इस तरह बनी दर्द की कहानी ...
३०
फटे पुराने कपङे पहने
मुरझाये सिकुङे जिस्मों के संग
इक हिन्दुस्तान कचरा बिन रहा है
गमों के ढेर में खुशियों की तलाश को .....
३१
जिन्दगी टेबल पर पङी घङी में बीत रही है .... आहिस्ता आहिस्ता ...
३२
जो चुप है वो आसमान है
जमीं पर तो आजकल शोर बहुत है
३३
खुद को समझने की कोशिश में
आईना किताब कर रखा है आजकल ।
३४
जर्जर अन्धेरे कमरे के
रोशनदान से
रोशनी ताकती है
अन्धेरों में रहने वालों के
मन मेँ झांकती है
३५
गरुर कि गठरी सिर उठाकर ना चलना
३६
मन्दिर-मस्जिद छोङ
कुछ रैनबसेरे बनाते हैं
चलो "धर्मनिरपेक्ष" बन जाते हैं
३७
सबसे ज्यादा सच
फसाने , किस्से
जिन्दगी की असलियत
सब ढेर में पङे है हर घर में ।
आज अखबार कल रद्दी कह पटकते हैं सब ।
३८
उग आती हैं
तुम्हारी यादें
स्मृति पटल पर
बिना चाहे
खरपतवार की तरह ...
३९
शहर भर में दौङते फिरते हैं
खुद से नावाकिफ
मरे हुए जिन्दा लोग .....
४०
तेरे बिना मैं
सालों से अधूरी पङी
किसी इमारत सी
पूरी होने के अनन्त इन्तजार में
४१
दोनों तरफ से छीली गई पेन्सिल देखकर
फिर नजर आ गई बचपने की तस्वीर कोई
४२
हर कविता
हर कहानी
हर किताब
जैसे लिखी जा रही है
आजकल मुझ पर ही
दुनिया कैसे जान गई
"जिन्दगी "
तेरे बारे में तो मैने किसी को बताया भी नहीं
४३
राजनीति दुर्बल
स्वार्थी छल और द्वेष से परिपूर्ण....
नेता या राजा नहीं
राष्ट्र फिर एक" चाणक्य" मांगता है ...
४४
तुम्हे नब्ज थमा दी थी
अपना हकीम जान
और तुम काट-पीट गये
कलाई
बहता रहा लहू
तुम मुर्दा कर छोङ गये
मुझे
४५
थोङा बादलों को बायें सरका कर
चांद में देख लिया है अक्स तेरा
अब उम्मीद फिर चमक उठी है
आसमां में पङी इस चांदी के जैसे
४६
तन्हाईयां कतराती है इस ओर आने से
तेरी यादों के सिपहलसार
पहरेदारी करते हैं यहां
४७
जरुरी नहीं शब्द लोचदार हो
हर वाक्य मेँ अलंकार हो
जो तुझे रुह तक छू आये
बस वही है इक
"सुन्दर कविता "
४८
इस शहर में एक नंबर से
पहचाना जाता है मेरा आशियाना ,
गाँव में तो मेरे घर को सब
नाम से जानते थे ....
४९
बहुत ढूंढा था उनको
जो चले गए अनंत में ....
आज नजर आये है वो
कुछ बेजान तस्वीरों में ....
५०
भटकते फिरते हैं
उनिन्दी से
आंखों के रेगिस्तान में
खानाबदोश सपने ।
५१
तुम्हारी यादें
नल से कतरा कतरा टपकते
पानी सी हैं
सन्नाटे में
शोर मचाती हैं
लेकिन व्यर्थ ही बह जानी हैं
५२
कुछ आशायें
फेंक दी है सूखे कूए में
खुद का मर्डर यूं किया है ....
५३
तुम "मिराज "की तरह हो
बस तुम्हे अगले ही पल पा लेने की तृष्णा में
कोसो दूर भटकती रही हूँ
इस अनन्त रेगिस्तान मे
५४
तुम्हारी और मेरी
वो पसंदीदा बुक
अब धूमिल होकर पङी है
लाइब्रेरी की उसी शेल्फ में
जहां उसे पहले पढने की जिद में
लङे थे हम
पहली बार
५५
बङी बङी किताबें
पङी हैं
सङक बनकर यहाँ
हर किताब में
बनती बिगङती हैँ
अगणित कहानियां
अधूरी कहानियाँ
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