Monday, October 28, 2013

एक सड़क ये भी

ये वो सड़क है जो सुनसान ही रहती है ..
इसने  नहीं देखी  है गाड़ियों की रौनकें ..
इसने नहीं देखी है अपनों से मिलने वालो की खुशी ..

इसने नहीं देखा अमीर गरीब का फर्क ....
इसके  किनारों पर कोई दुकाने नहीं
जहाँ इसने मचलते बच्चों  को देखा हो साईकिल के लिए
कोई  घर भी नहीं है यहाँ
जिसके चौखट पर जलते बल्ब ने रोशन किया हो इसे रात में


ये वो सड़क है जहाँ से कोई गुजरना नहीं चाहता ..
मौन की रस्सी से बंध जाते है सब यहाँ से गुजरते हुए
नहीं चाहते इसकी मंजिल तक जाना कोई कभी ..

इस सड़क ने बिदाई देखी  है
दुःख और करुणा देखी है ..
रुदन देखा है
भय  देखा है ..

लेकिन इससे ये ना समझना की
 मनहूस है ये सड़क

क्योंकी

 इस सड़क ने देखा है अंतिम सत्य
इसने  देखा है मोक्ष ..
इसने सुना है केवल इश्वर का नाम
इसने भेद नहीं देखा
इसने देखा है की हर इंसान बराबर है ..

ये ले जाती है उस राह पर जो हर इंसान की मंजिल है ...

ये सड़क शमशान को जाती है ..
और
इसके किनारे पर कब्रिस्तान है ...










Wednesday, October 23, 2013

प्रश्न

प्रश्नों से भरा है ये जीवन ..
ये  सृष्टि
आदि से अंत तक  है प्रश्न
क्या तलाश होगी पूर्ण सब उत्तर पाने की ??


क्या ये प्रश्नचिन्ह बना रहेगा हम सबके बाद ??
या , कोई स्थान है जहाँ लिखे पड़े हैं सारे उत्तर
किसी  शिला लेख पर
या दबे पड़े हैं कहीं प्रश्नों की अगणित चट्टानों के बोझ तले??

क्या  यूँ ही ये प्रश्नचिन्ह  बढते जायेंगे ??
और  हर प्रश्न बना रहेगा प्रश्न ही
उत्तर इनके कभी न मिल पाएंगे ?

जैसे कभी नहीं मिल पाई है ..
धूप और छाया को बाँटती वो पूर्ण लकीर  !!

Monday, October 14, 2013

रावण

लो जी एक और दशहरा आ कर चला गया । जला लिये रावण हमने । वैसे यदि सोचे तो अब तक कितने रावण जला चुके हम। मैं तो हिसाब ही नहीं लगा सकती , बचपन से ही अंको से परेशान रही हूँ लेकिन हर परेशानी का तोङ होता है यहाँ । तो शायद अब तक असंख्य रावण जल चुके हमारे यहाँ । हर साल हजारों रावण जला देते हैँ हम ।

लेकिन इतने रावण आते कहाँ से हैं ?
हम ही तो बनाते है उन्हे । हर साल" अब तक का सबसे ऊँचा रावण"  । रावण का कद और संख्या समाज में फैल रही बुराई के अनुपात मेँ बढ रहा है । बङे बङे रावण के साथ हर गली मोह्लले के अलग अलग रावण होते हैं । कहीं कही तो हर घर का अपना रावण भी होता है ।

प्रश्न है कि इन सबका औचित्य क्या है ? विजयदशमी बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीकात्मक  त्यौहार  है । तो फिर ये तो सहज सरल प्रकार से भी मनाया जा सकता है न ।

अगणित पुतले बनाना , हर बार पहले से अधिक विशाल, हर घर में अलग , ये सब हमारी नित्य बदतर हो रही सामाजिक दशा  से उपजी कुण्ठा तो नहीं जो इस प्रतीक को फैला फुला रही है ?

यदि ऐसा है तो क्यो न हम खुद की बुराई को जला देँ ? मन के गलत भावो , विचारों कि शुद्धि करेँ । रावण केवल पुतले जला देने से नहीं मरेगा , वो तो प्रतीक  मात्र है । स्वँय के भीतर का रावण मारना जरुरी है । ये प्रण जरुरी  है कि हर वर्ष रावण की संख्या और उसका बल कम होगा , बढेगा नहीँ।

हमारी मनः स्थिती , निराशा , कुण्ठा से भीतर का विकार भी बढेगा और उसकि इस प्रकार की बाह्य  अभिव्यक्ति से प्रदूषण।

सच्ची विजयदशमी मनाने के लिए भीतर को बदलना होगा तभी इसकी सार्थकता सिद्ध होगी ।

Thursday, October 10, 2013

शब्दों के कोलाहल में , तुम्हारा मौन सुनाई देता है ..



हलचल है हर तरफ
हर तरफ अजीब सा शोर है ...
मैं झाँकू खुद के ही मन में
लगता  है वो कोई और है ..
सुबह को  जागू जब मुझे
ये  दिन अब खाली  लगता है ..
तूफ़ान ह्रदय का भीतर को
बाहर आने को मचलता है ..
यादों  का चलचित्र फिर ,नैनों में दिखाई देता है ..

शब्दों  के कोलाहल में , तुम्हारा मौन सुनाई देता है ..



मेरी  दोपहर अब कुछ भारी भारी लगती है ..
उठती है हुक कैसी  अजब बीमारी लगती है
दर्द सारा जब मेरी आखों से छलकता है
मेरे संग तब मेरा एक आइना बिलखता है ..
ये बहता गीला समंदर
हर वक्त दुहाई देता है ..
शब्दों  के कोलाहल में , तुम्हारा मौन सुनाई देता है ..


शाम  तो बीती ढलता दिन देखकर
रात धीरे से उगती है ...
बिना कहे कुछ चले गए क्यों तुम
ये बात शूल सी चुभती है ...
तुझसे  बंधी ये प्रीत छुडा लु
खुद को मैं फिर पीछे बुला लु ..
ये सब करने कि पर मुझको ..
न वक्त रिहाई देता है ....

शब्दों  के कोलाहल में , तुम्हारा मौन सुनाई देता है ..



Wednesday, October 9, 2013

नेत्रहीन



चला जा रहा था वो
दौड़ती हुई सड़क किनारे
हाथ में सफ़ेद लाठी लिए ....

खुली आँखों में बंद है आँखे उसकी
रौशनी में छुपे अँधेरे ही दिखते है उसे ...

कर रही होगी उसका इंतज़ार
सड़क के उस पार बैठी नन्ही उसकी ..
आज  दिवाली को लायेंगे रौशनी का सामन बापू ...

 सड़क  पार जाने को
कुछ कदम वो बढाता है ..
एक दो आवाज आने जाने वालो को देता है ..
शायद  कोई ले जाये उस पार ..


अनसुनी आवाज साथ लेकर
चल पड़ा खुद ही ..

 लेकिन बीच में ही टक्कर से उछल कर
पहुँच गया उस पार ..
जहाँ से नही आ पायेगा वो इस पार कभी ..

 क्यों कि ..
सड़क पर चलने वाले "नेत्रहीनों" कि कमी नहीं .....