Sunday, April 27, 2014

अहिल्या

स्वर्ण मुद्राओं के बादल
बरसते है आजकल
और ज़मीन पर
बोते  हैं
घृणा , द्वेष ,कटुता .....
 स्वार्थ के वृक्षों से
अटी पड़ी है पृथ्वी
जंगल हुई जा रही है ....
हम क्रोध के फल खा रहे है
और मृत्यु को उगा  रहें है
समय से पूर्व ...
वाणी से चाकू छुरिया बोलते हैं
संवेदना मार कर
गाड़ दी है पाताल में...
और मानवता ...
किसी कोने में पत्थर हो  बैठी है मानवता
फिर से जी उठने को
अहिल्या कि तरह
राम के इंतज़ार में ...



Monday, April 7, 2014

बंटवारा

वो वक्त भी खुद से हारा था
उस दिन बंटवारा था ...

जलती आग का उठता हुआ धुंआ था
राम की खाला, रहीम की माँ का कत्ल हुआ था...

सरसों के खेतों में लाशों की फसल उगी थी
ईमान की गर्दन हैवान के आगे झुकी थी ...

बांट डाले घर-बार
गम-त्यौहार
बन्द कर डाले वो द्वार,
जिनपर  आने जाने की कहानियां लिखी हुई थी ...

तो फिर
सांसे लेना बँद क्यूं न किया मजहब बांटने वालों ने
हवा तो हिन्दु-मुसलमान ना हुई थी ।