Saturday, November 23, 2013

आइना

क्या याद है तुम्हे ?
एक दिन एक आइना ले आये थे तुम
किनारों पर नीले -हरे रंग की नक्काशी
और चारों कोनों पर बने थे गुलाब के फूल

सामने दीवार पर टांकते हुए बोले थे
ये हमारे लिए है
हमारे  स्वप्न की परिणीति
और जब हम साथ खड़े हुए थे उसके सामने
हमारे  अक्स नजर आ रहे थे
साथ -साथ
एक साथ
लग रहा था जैसे कोई पिक्चर हो
किसी खूबसूरत सी नीली-हरी फ्रेम में जड़ी
सदा के लिए बांधे "हमे "
यूँ ही एक साथ


लेकिन भूल गई थी में
आईने में जो था वो परछाई  थी
आभासी  था वो दृश्य
जैसे स्वप्न होता है कोई
क्षणभंगुर


और फिर एक दिन
पत्थर  लेकर  कही से तुमने
तोड़ दिया वो स्वप्न
जो "हमने " जिया था
और फिर मुड़कर भी ना देखा ...
चुभे थे उसके तेज टुकड़े मुझे
बहा था रक्त उन घावों से


आज भी समेट रही हूँ वो बिखरे टुकड़े
कोशिश कर रही हूँ फिर से
आइना बनाने की ...

जो  टुकड़े चुभे थे पैरों में
उन्हें हाथों से निकलने की
और बहते हुए रक्त को रोकने की ..
पैरों में बेड़ियों की तरह पड़ गए हैं गहरे घाव
जो मुझे चलने नही देते

अरे सुनो
एक बार लौटकर जरा इनपर
मरहम लगा जाओ  !!





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