लो जी एक और दशहरा आ कर चला गया । जला लिये रावण हमने । वैसे यदि सोचे तो अब तक कितने रावण जला चुके हम। मैं तो हिसाब ही नहीं लगा सकती , बचपन से ही अंको से परेशान रही हूँ लेकिन हर परेशानी का तोङ होता है यहाँ । तो शायद अब तक असंख्य रावण जल चुके हमारे यहाँ । हर साल हजारों रावण जला देते हैँ हम ।
लेकिन इतने रावण आते कहाँ से हैं ?
हम ही तो बनाते है उन्हे । हर साल" अब तक का सबसे ऊँचा रावण" । रावण का कद और संख्या समाज में फैल रही बुराई के अनुपात मेँ बढ रहा है । बङे बङे रावण के साथ हर गली मोह्लले के अलग अलग रावण होते हैं । कहीं कही तो हर घर का अपना रावण भी होता है ।
प्रश्न है कि इन सबका औचित्य क्या है ? विजयदशमी बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीकात्मक त्यौहार है । तो फिर ये तो सहज सरल प्रकार से भी मनाया जा सकता है न ।
अगणित पुतले बनाना , हर बार पहले से अधिक विशाल, हर घर में अलग , ये सब हमारी नित्य बदतर हो रही सामाजिक दशा से उपजी कुण्ठा तो नहीं जो इस प्रतीक को फैला फुला रही है ?
यदि ऐसा है तो क्यो न हम खुद की बुराई को जला देँ ? मन के गलत भावो , विचारों कि शुद्धि करेँ । रावण केवल पुतले जला देने से नहीं मरेगा , वो तो प्रतीक मात्र है । स्वँय के भीतर का रावण मारना जरुरी है । ये प्रण जरुरी है कि हर वर्ष रावण की संख्या और उसका बल कम होगा , बढेगा नहीँ।
हमारी मनः स्थिती , निराशा , कुण्ठा से भीतर का विकार भी बढेगा और उसकि इस प्रकार की बाह्य अभिव्यक्ति से प्रदूषण।
सच्ची विजयदशमी मनाने के लिए भीतर को बदलना होगा तभी इसकी सार्थकता सिद्ध होगी ।
Saarthak Vichar
ReplyDeleteसच्ची बात !
ReplyDeletepls. disable word verification in setting