Monday, October 14, 2013

रावण

लो जी एक और दशहरा आ कर चला गया । जला लिये रावण हमने । वैसे यदि सोचे तो अब तक कितने रावण जला चुके हम। मैं तो हिसाब ही नहीं लगा सकती , बचपन से ही अंको से परेशान रही हूँ लेकिन हर परेशानी का तोङ होता है यहाँ । तो शायद अब तक असंख्य रावण जल चुके हमारे यहाँ । हर साल हजारों रावण जला देते हैँ हम ।

लेकिन इतने रावण आते कहाँ से हैं ?
हम ही तो बनाते है उन्हे । हर साल" अब तक का सबसे ऊँचा रावण"  । रावण का कद और संख्या समाज में फैल रही बुराई के अनुपात मेँ बढ रहा है । बङे बङे रावण के साथ हर गली मोह्लले के अलग अलग रावण होते हैं । कहीं कही तो हर घर का अपना रावण भी होता है ।

प्रश्न है कि इन सबका औचित्य क्या है ? विजयदशमी बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीकात्मक  त्यौहार  है । तो फिर ये तो सहज सरल प्रकार से भी मनाया जा सकता है न ।

अगणित पुतले बनाना , हर बार पहले से अधिक विशाल, हर घर में अलग , ये सब हमारी नित्य बदतर हो रही सामाजिक दशा  से उपजी कुण्ठा तो नहीं जो इस प्रतीक को फैला फुला रही है ?

यदि ऐसा है तो क्यो न हम खुद की बुराई को जला देँ ? मन के गलत भावो , विचारों कि शुद्धि करेँ । रावण केवल पुतले जला देने से नहीं मरेगा , वो तो प्रतीक  मात्र है । स्वँय के भीतर का रावण मारना जरुरी है । ये प्रण जरुरी  है कि हर वर्ष रावण की संख्या और उसका बल कम होगा , बढेगा नहीँ।

हमारी मनः स्थिती , निराशा , कुण्ठा से भीतर का विकार भी बढेगा और उसकि इस प्रकार की बाह्य  अभिव्यक्ति से प्रदूषण।

सच्ची विजयदशमी मनाने के लिए भीतर को बदलना होगा तभी इसकी सार्थकता सिद्ध होगी ।

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