1)
वो चान्द नहीं था
रात के जिस्म पर अनचाहा धब्बा था
और तारे
सूरज को आरी से काट कर फैके गये टुकङे
-रात को तो बस अंधेरा ही सुहाता था
2)
रात ब्लैकहोल होती है
गिरते चले जाते हैं सब
खुद ही
खुद में ही
1)
वो चान्द नहीं था
रात के जिस्म पर अनचाहा धब्बा था
और तारे
सूरज को आरी से काट कर फैके गये टुकङे
-रात को तो बस अंधेरा ही सुहाता था
2)
रात ब्लैकहोल होती है
गिरते चले जाते हैं सब
खुद ही
खुद में ही
रात के तीसरे पहर
वक्त को बांधने की कोशिश करती है
वो लङकी
वो
सन्नाटे की रस्सी बनाती है
और
झोला बुनती है
कविता का
वो चाहती है
तरतीबी से तह करना
जो हो चुका है उसे
और जो हो रहा है उसे भी
जो होने वाला है
उसे कैद कर झोले में
डालना चाहती है
लेकिन
रात का तीसरा पहर
कसकर
वक्त का हाथ पकङता है
और दौङ जाता है
वो लङकी
फिर
क्या रखती है
उस खाली झोले में
कभी तुम झांककर देखना
कभी तुम भी बुनना
झोला उसकी ही तरह
लेकिन हाँ
रात के तीसरे पहर ।
मैं
उलझनें अपनी
कागज़ पर दे मारती हूँ
कागज उलाहना नहीं देता
सहता है
कुछ नहीं कहता
-कितना आसान है
उलझन होना
-कितना मुश्किल है
कागज होना
हम
लिबास की तरह
बदलते हैं
खुद को
पहनते हैं
रोज नया भ्रम कोई
स्वयं को छिपाने के प्रयास में
स्वयं से ।
हम
कई आवरणों में ढके
घुटते रहते हैं
और घुटन मिटाने को
फिर ओढ़ते हैं
आवरण नया
हम
भूल जाते हैं
सत्य पारदर्शी होता है
और
स्वयं के सत्य का बोध
"मानवता"
अब
घरों में लोग
दीवारों की तरह रहते हैं
मौन
भावहीन
कभी शुन्य
कभी परस्पर ताकते
संवाद से परे
बोझ ढोते
छत बचाने की कोशिश में
नींव गलाते लोग....
दीवारों की तरह रहते हैं घरों में अब ।