Thursday, August 27, 2015

रात का तीसरा पहर

रात के तीसरे पहर
वक्त को बांधने की कोशिश करती है
वो लङकी

वो
सन्नाटे की रस्सी बनाती है

और
झोला बुनती है
कविता का

वो चाहती है
तरतीबी से तह करना
जो हो चुका है उसे

और जो हो रहा है उसे भी

जो होने वाला है
उसे कैद कर झोले में
डालना चाहती है

लेकिन
रात का तीसरा पहर
कसकर
वक्त का हाथ पकङता है
और दौङ जाता है

वो लङकी
फिर
क्या रखती है
उस खाली झोले में

कभी तुम झांककर देखना

कभी तुम भी बुनना
झोला उसकी ही तरह

लेकिन हाँ

रात के तीसरे पहर ।

















1 comment:

  1. सदा की तरह एक सुंदर शीतल शब्द और भावों की गर्माहट रचना के लिए शुभकामनायें..

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