Sunday, April 19, 2015

कागज

मैं
उलझनें अपनी
कागज़ पर दे मारती हूँ

कागज उलाहना नहीं देता
सहता है
कुछ नहीं कहता

-कितना आसान है
उलझन होना

-कितना मुश्किल है
कागज होना

2 comments:

  1. बहुत मुश्किल है कागज़ होना। अद्भुत मानवीकरण। शुभकामनायें।

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  2. आपकी यह कविता मुझको सबसे प्रिय है shweta di

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