Thursday, November 28, 2013

गाँव मर गया

एक रोज मैं  गांव छोड़ आया ..

सारे संगी साथी 
टूटे  हुए कंचे , खेल में जीती सीपियाँ
माचिस की डिब्बिओं से बनी रेल
और वो पुराना टायर ...
सब सहेज रखे थे अब तक
मैं वो बचपन के टुकड़े तोड़ आया ..
एक रोज मैं गांव छोड़ आया...


वो गोबर के लेप वाला घर
हलके भूरे रंग वाले किवाड़..
जिनके पीछे छुपता था मुन्नी को  डराने को
वो आँगन
जहाँ तुलसी के चारो और दौड़ता था
जब माँ मारने को आती थी
 वो छत जो दीवार से कभी ढकी न गई
मैं घर का हर एक कोना मरोड़ आया...
एक  रोज मैं  गांव छोड़ आया ..


वो गलियां, वो सौंधी मिटटी
वो  बरसात में चलती नाव
वो बरगद पर बीतने वाली गर्मी को छुट्टी
और ठिठुरन वाली सर्दी
परचूने वाले भीमा काका
मीठी संतरे की गोली वाली बूढी माई
मेरे हर एक रिश्ते को उल्टा मोड़ आया ..
एक रोज मैं गांव छोड़ आया .


तब से रुका नहीं हूँ मैं
 जिस रोज मैं गांव छोड़ आया ...
एक उम्र के बाद यूँ ही वहाँ का खयाल आया
मुट्ठी भर वक्त साथ ले निकल पड़ा उस जगह को
जहाँ मैं अपने पांव छोड़ आया ....


लेकिन बहुत बदल गया है मेरा गांव
अब यहाँ पर भी नहीं मिलती बचपन की निशानियाँ..
कच्चे-पक्के  घर , हलके भूरे किवाड
आँगन बीच खड़ी तुलसी ,सौंधी वाली मिट्टी
और गर्मी वाली छुट्टी ...

यहाँ पर भी है अब पक्के घर , सीमेंट की गलियां
कम  होते पेड़ , दौड़ती हुई गाडियाँ..
बोतल वाला दूध , विडियो गेम और इन्टरनेट
मन का सूनापन , रिश्तों में खालीपन


क्या हुआ जाने यहाँ ये बदलाव क्यों आया ...
मैं ही तो कही शहर को गांव तो नहीं लाया
या फिर गांव खुद को ही किसी और गाँव में  छोड़ आया ...



















1 comment:

  1. स्मृतियाँ ही तो शेष रह जाती है,श्वेताजी,
    अच्छी रचना है,लिखना जारी रखिये,

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