Sunday, March 6, 2016

धूप का टुकङा

सातवीं मंजिल की
बालकनी से होकर
दबे पांव चला आता है
धूप का एक टुकङा

और
छू कर देखता है
डाइनिंग पर पङी आधी भरी प्लेट को

फिर
जरा दायें सरक कर
सुखा देता है
कुर्सी पर बेतरतीब पङा
गीला तौलिया

और
पोंछ देता है
ग्लास से छलका पानी

सब दिन
ताकता रहता है
भरे हुए खाली घर को

फिर
जाते जाते चूम लेता है
दीवार पर टंगी उसकी तस्वीर

मां अब
ऐसे ही मिलती है उससे
धूप का टुकङा बनकर

3 comments:

  1. Stunning and speechless. Aap khud likhthi hain ??Lekin jo bhi h jabarjast h. Maine aaj tak aise vichar nahi padhe kahin. Simply Magnanimous...

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