बहुत विस्तृत है
अपने आदि- अन्त के माप से अनजान
आकाश
समुद्र
पर्वत
रेगिस्तान
और
इन्सान
और बहुत एकाकी भी
शायद
विस्तार एक भ्रम है
जो जितना समझता है "वृहत" स्वयं को
वो उतना ही " कम" है ।
अपने आदि- अन्त के माप से अनजान
आकाश
समुद्र
पर्वत
रेगिस्तान
और
इन्सान
और बहुत एकाकी भी
शायद
विस्तार एक भ्रम है
जो जितना समझता है "वृहत" स्वयं को
वो उतना ही " कम" है ।
वाह..क्या बात है
ReplyDeleteआपकी शब्द रचना बड़ी सटीक और विस्तार लिए है। शुभकामनायें। ऐसे ही लिखती रहें।
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